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Chapter 3- मृगजल - Romantic, Drama Psychological Thriller हिंदी उपन्यास

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हालाँकि विजय अपने दोस्तों के साथ बातचीत में मशगूल था लेकिन उसकी निगाहें अभी भी उन महिलाओं के गुट की ओर लगी हुई थीं जहाँ प्रिया खड़ी थी. उधर प्रिया की भी वही हालत थी. वो भी बुझे मन से बातों में लगी थी लेकिन उसकी नज़रें भी विजय की ओर टिकी थी. प्रिया के बगल में ही विजय की माँ और बहन खड़ी थी. विजय की माँ ने प्रिया का हाथ अपने हाथों में लिया और बड़ी आत्मीयता से उसके साथ बातें की. विजय ने ताड़ लिया की ये सुनहरी मौका है , माँ से बात करने का बहाना बना कर वह जा सकता है और प्रिया से भी मिल सकता है.

"एक्सक्यूस मी" कहते हुए विजय ने दोस्तों से माफी माँगी.

"यू आर एक्स्क्यूज़्ज़्ड" उसका एक दोस्त आँख मारते हुए बोला.

लेकिन विजय ने उसे पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया और सीधा माँ की ओर चल पड़ा.

ज्यों ही वह माँ के करीब पंहुचा त्यों ही प्रिया की एक सहेली ने उसका हाथ पकड़ा और वह उसे वहाँ से दूसरी ओर ले गयी. विजय के मन में निराशा छा गयी , प्रिया से मिलने का मौका जो हाथ से निकल गया था.

"क्या बात है बेटा?" माँ ने उससे पूछा

"कुछ नही...कुछ भी तो नही?" विजय चौंककर बोला.

अब वह पहुच ही गया था तो कुछ बहाना करना ही था वरना माँ को शक हो जाता

"माँ?" विजय ने कहा

"हां बेटे?" माँ ने पूछा

"माँ आप खड़ी क्यों हो ? वहाँ कुर्सियों पर बैठो ना आप..? नही तो हमेशा की तरह आपके घुटनो का दर्द शुरू हो जाएगा" वह बात को घुमाते बोला

"हाँ बेटे ...बैठती हूँ थोड़ी देर बाद " उसकी माँ ने उसकी चिंता को दरकिनार करते हुए कहा और वापस अन्य स्त्रियों से बातें करनेमें मशगूल हो गयी.

"बेड़ा गर्क" विजय ने हाथ मलते सोचा "ये मौका भी कम्बख़्त हाथ से गया"

विजय की बहन शालिनी मिज़ाज की भोली भाली और बेहद शर्मीली थी , मितभाषी होने के कारण उसे वैसे भी समझ नही आता था कि किससे क्या बात की जाए, और यूँ भी इस पार्टी में उसे अपनी जान पहचान का कोई नज़र नही आ रहा था. वहीं दूसरी ओर उसकी माँ बहुत ही मिलनसार थी , किसी से भी घुल मिल जातीं थी. शालिनी वहाँ खड़े खड़े उकता गयी थी, वह आस पास बैठने के लिए कुर्सी ढूँढने लगी. हालाँकि कुर्सियाँ तो थीं लेकिन वो वहाँ से काफ़ी दूर लगी हुई थीं और उसे माँ से ज़्यादा दूर भी जाना नही था. लिहाज़ा बगल में ही एक खंबा था , वह उससे टिक कर खड़ी हो गयी. कोई फिल्मी गाना बज रहा था , वह उसे गुनगुना रही थी कि अचानक उसने देखा लॉन के पास वाली इमारत के करीब खड़ा कोई लड़का उसे इशारे कर कुछ कहने की कोशिश कर रहा था , उसने सोचा शायद वह लड़का किसी और को इशारे कर रहा है , लेकिन जब उसने पीछे घूम कर देखा तो कोई नज़र न आया , सो जाहिर था यह लड़का उसी को इशारे कर रहा था.

"मैं तो इसे जानती तक नही , फिर भला क्यों यह मुझे अपने करीब बुला रहा है?" शालिनी ने सोचा, फिर उसने गर्दन घुमा कर उस ओर देखा जहाँ थोड़ी देर पहले उसकी माँ अन्य स्त्रियों के साथ बातें कर रही थीं . लेकिन माँ वहाँ से नदारद थी.

"अरे अभी तो यहीं थी , जाने कहाँ चली गयी" उसने सोचा और चारो ओर देखा लेकिन माँ कहीं न मिली . दूर कही पर उसे अपना भाई विजय अपने दोस्तों के साथ बतियाते दिख गया . उसने दोबारा उस इशारे करते लड़के की ओर देखा , वो अब भी हाथ हिला हिला कर कुछ बताने की कोशिश कर रहा था.

"अजीब मुसीबत है , यह क्या कहना चाह रहा है कुछ समझ नही आता" उसने मन ही मन सोचा

"लेकिन बगैर माँ और भाई को बताए उस ओर जाना भी ठीक नही" वह यह सोच ही रही थी की इतने मे वह लड़का उस तक आ पंहुचा यह देख कर उसकी घबराहट और बढ़ गयी.

" उपर तुम्हें तुम्हारी माँ बुला रही है" लड़के ने कहते हुए मुँह बनाया और वापस जाने लगा.

अब कहीं जाकर उसकी जान में जान आई , वह भी न जाने क्या क्या सोच बैठी थी. उस लड़के के बारे में तरह तरह के कयास और शक के बादल जो उसके मन में उमड़ रहे थे सब साफ हो गये . शायद उसकी सोच ही इस के लिए दोषी है , भाई हमेशा कहता है की ज़रा लोगों से मिला जुला करो उनसे बातें करो दुनियादारी सीखो , यूँ अकेले रहने से कुछ हासिल नहीं होगा इसमें तुम्हारा ही नुकसान है, उसकी बात भी सही है. अगर मैं लोगों में मिलना जुलना रखूं तो शायद ऐसे विचार भी दिमाग़ में नहीं आएँगे. मुमकिन है माँ ही ने मुझे यूँ अकेले खड़े देख इस लड़के के ज़रिए उपर किसी से मिलने बुलवाया हो वह यह सब सोचते हुए उस लड़के के पीछे जाने लगी.

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