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Online Novels - Madhurani - CH - 3 पहचान

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Online Novels - Madhurani - CH - 3 पहचान
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When a person can no longer laugh at himself, it is time for others to laugh at him.
homas Szasz


गणेशराव और विनय सामने एक बडेसे कंपाऊंडमें जाने लगे. कंपाऊंडके गेटपर उन्हे वहां तैनात सेक्यूरीटी गार्डने रोका. जब उन्होने अपनी पहचान बताकर उनकी अंदर जानेकी वजह बताई, तभी उन्हे अंदर जानेकी रजामंदी दे दी गई. वे कंपाऊंडके गेटसे अंदर जाकर एक चौडे रस्तेसे, जिसकी दोनो तरफ उंचे उंचे पेढ लगे गए थे, अंदर जाने लगे. रास्तेके दोनो तरफ अशोक और निलगीरीके काफी उंचे पेढ लहरा रहे थे. जैसे जैसे वे अंदर जा रहे थे बंगलेका थोडा थोडा हिस्सा उनके दृष्टीके दायरेमें आने लगा था. जब वे बंगलेके एकदम पास गए, तब पुरा बंगला उनको दिखने लगा था.

वह बंगला कहां ! वह तो एक राजमहल था....

 उसके चारो तरफसे काफी खुली जगह थी, जिसमें बडे बडे पेढ उगाए गए थे, जिसकी वजहसे बाहरसे आनेवालेको पहले वह पेढही दिखते थे. बाहरसे देखनेके बाद उन पेढोंके भिडमें कही बंगला छुपा हुवा होगा ऐसा कतई लगता नही था. जब वे बंगलेके करीब पहुंच गए, उन्होने देखा की वहां तो मानो लोगों का जुलुस लगा हुआ था . बंगलेके आसपासके पेढोंके साएमें लोगोंके समुह बैठे हुए थे. कोई धोती पहने हुए, कोई पैजामा पहने हुए तो कोई पँट शर्ट पहने हुए, वहां हर तरहके लोग मौजुद थे. धोती पहने हुए गांवके लोग वहा जादा मात्रामें नजर आ रहे थे. उसीमें कुछ खादीके कपडे पहने हूए और पैजामा या धोती पहने हूए लिडर लोग या खुदको लिडर समझने वाले लोग इधर उधर घुम रहे थे. गांधी टोपी और वहभी अगर तिरछी पहना हुवा आदमी हो तो वह लिडर होना चाहिए ऐसा गणेशरावके मनमें कही संग्रहीत किया गया हुवा था. ऐसे लोगोंके बारेमें गणेशरावके मनमें एक डरसा बैठा हुवा था. इसलिए गणेशराव जितना हो सके उतना इन लोगोंके आसपास जानेसे बचते थे. लेकिन आज नौबत ही वैसी आ गई थी, जिसपर उनका कोई काबु नही था.

लोग बाहर अपनी बारी कब आती है इसकी राह देखते हूए रुके हूए थे.

लेकिन मुझे ऐसे राह देखनेकी कोई जरुरत नही होगी ...

मेरीतो सरकारके साथ एकदम नजदिकी पहचान है ...

ऐसा सोचते हूए गणेशरावने उनके आसपास अपनी बारी आनेके लिए रुके हूए लोगोंपर अपनी नजरे घुमाई. उस  नजरमें, कोशीश करनेके बावजुत एक कुत्सित भाव आ ही गया था.

" विनू चलो हम सिधे अंदर जाएंगे " गणेशरावने विनूसे शेखी बघारते हूए कहा.

दोनो बंगलेके अंदर गए. बंगलेके अंदर, बिचोबीच लोगोंको प्रतिक्षा करनेके लिए एक बडा हॉल था. उसमें लोगोंको बैठनेकी व्यवस्था की हुई थी. गणेशराव विनयको लेकर उस हॉलमें आ गए. हॉल लोगोंसे खचाखच भरा हुवा था. गणेशरावने एक बार उन प्रतिक्षा कर रहे लोगोंपरसे अपनी नजरे घुमाई. कुछ लोग किसी लिडरकी तरह अच्छी तरहसे इस्त्री किए हूए कपडे पहनकर बडे ठाठके साथ वहां बैठे हूए थे. कुछ लोग बेबस लाचारसे, अपनी बारी कब आती है यह देखते हूए दरवाजेकी तरफ टकटकी लगाकर बैठे हूए थे. इतने सारे लोग और उनमेसे कुछ अपनेसे बडे लोग पाकर गणेशको अपना आत्मविश्वास डगमगासा लगने लगा. लेकिन नही अपनी सरकारके साथ इतनी नजदिकी पहचान होनेके बाद डरनेकी कोई बातही नही होनी चाहिए. उन्होने अपने दिमागमें आए हिनताके भावनाको झटक दिया. उन्होने इधर उधर देखते हूए, वहां मौजुद चारपाच दरवाजोंमेसे सरकारसे मिलनेके लिए जानेका कौनसा दरवाजा होगा यह निश्चित किया और वे सिधे उस दरवाजेसे अंदर जाने लगे. .
एक तगडा आदमी उनके बिच आया और उसने इशारेसेही 'क्या काम है ?' ऐसे अशिष्टतासे पुछा. .

'' सरकारसे मिलना है ? "

" यह सारे लोगभी उनसे मिलनेके लिएही बैठे हूए है "उसने गुस्ताखी करते हुए कहा.

" नही मेरी सरकारसे एकदम नजदिकी पहचान है " गणेशरावने गर्वके साथ कहा.

उसने गणेशरावकी तरफ उपरसे निचे देखा और कुत्सित भावसे हसते हूए बोला.
" भाई साहब ... सारे लोग यही कहते है ... वो वहां ... उस तरफ उस काऊंटरपर जावो ... अपना नाम पत्ता और क्या काम है यह एक परची पर लिखकर यहां दे दिजीएगा. ..और फिर आपका नाम जब पुकारा जाएगा तब आप अंदर जाईए.

"लेकिन .."

" भाई साहब अगर आपकी सचमुछही नजदिककी पहचान होगी तो आपको जल्दीही अंदर बुलाया जाएगा." उस आदमीने जैसे उन्हे बेवकुफ समझते हुए कहा.

फिरभी गणेशराव वहांसे हटनेके लिए तैयार नही है ऐसा पाकर एक दुसरे आदमीने हस्तक्षेप करते हूए उन्हे सबकुछ ठिकसे समझाया. अपना हुवा अपमान गणेशरावके चेहरेपर स्पष्ट दिख रहा था. आपना अपमान पिकर विन्याकी नजरसे बचते हूए वे चुपचाप उस काऊंटरके पास गए. वहांभी कतार लगी हुई थी. चुपचाप जाकर वे कतारमें लग गए. विन्याभी जानबुझकर उनकी आखोंमे देखनेकी कोशीश कर रहा है ऐसे गणेशरावको महसूस हुवा.

यह ऐसी है तुम्हारी नजदिकी पहचान? ...

इस अपमानसे तो पहचान नही होती तो अच्छा होता ...

कमसे कम इतना अपमान तो नही हुवा होता ...

शायद ऐसा विन्याको कहना होगा ऐसे गणेशरावको तिरछी नजरसे विन्याकी तरफ देखते हूए महसुस हुवा.

कतारमें अपना नंबर आनेके बाद काऊंटरपर अपना नाम पता और मिलनेका उद्देश लिखा हुआ परचा देकर गणेशराव हॉलमें बैठनेके लिए खाली कुर्सी ढूंढने लगे. पहले हॉलमें एक नजर दौडाई, फिर हॉलमें एक चक्कर लगाया. हॉलमें एकभी कुर्सी खाली नही थी. विन्या दरवाजेमेंही अपने पिताकी तरफ चिढकर देखता हूवा खडा हो गया. आखिर गणेशराव अपने लडकेकी तरफ उसकी तिखी नजरसे बचते हूए जाने लगे.

" गणेशराव सायेब... " अचानक पिछेसे आवाज आ गया. .

गणेशरावने आश्चर्यसे मुडकर देखा.

चलो कमसे कम यहां कोईतो मुझे पहचानता है ...

उन्हे राहतसी महसूस हुई थी. उन्होने पिछे मुडकर देखनेसे पहले गर्वसे एक कटाक्ष अपने लडकेकी तरफ डाला. उसके चेहरेके भावमें कोई फर्क नही था. उन्होने पिछे मुडकर देखा तो एक देहाती उन्हे आवाज देते हूए कुर्सीसे उठकर खडा हुवा था. वे उसे नही पहचानते थे. लेकिन शायद वह उन्हे जानता था. अब नोकरीके वजहसे हजारो लोगोंसे पाला पडता है. सबकी पहचान रखना जरा मुश्किलही था और उपरसे ढलती उमर. याददाश्त भी  पहलेजैसी तेज नही रही थी. मुस्कुराकर उन्होने उसकी तरफ देखा .

" आईए साहेब ... यहां बैठिए. "

उस देहातीने उन्हे कुर्सी ऑफर करते हूए कहा. वे खुशीसे चलते हूए उस देहातीके पास गए. उस देहातीके पिठपर प्यारसे थपथपाते हूए बोले.

" अरे ... रहने दो ... तूम बैठोना ... हम बाहर जाकर रुकते है ... "

" नही साब ... ऐसा कैसे ... हमने बैठना और आपने खडा रहना ...आप बैठिए .." उसने नम्रतासे कहा. .

उन्हे उसे वहांसे उठाकर वहा बैठना ठिक नही लग रहा था और उसने दिया सन्मानभी तोडनेका मन नही कर रहा था. आखिर वह उसके आग्रहका मान रखते हूए उस कुर्सीपर बैठ गए. कुर्सीपर बैठकर उन्होने दरवाजेकी तरफ देखा. उनका लडका वहां नही दिख रहा था.

शायद बाहर जाकर खडा हुवा होगा... खुली हवामें ...

" मै बाहर हूं साब .. " कहते हूए वह देहातीभी हॉलसे बाहर निकल गया.


वह इतने जल्दी बाहर निकल गया की गणेशरावको उसे 'धन्यवाद' कहनेकाभी मौका नही मिला.

... क्रमश:...


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