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Hindi web of Novel books - Madhurani - CH-7 सरपंच

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Courage is not the absence of fear, but rather the judgement that something else is more important than fear.
-Ambrose Redmoon

वे दोनो सरपंच के मकानके पास जाकर पहूंचे. मकान कैसा.... वह तो एक हवेली थी हवेली! हवेलीके अंदर जानेके लिए सामनेही पुराना तेल लगा लगाकर काला हुवा बहुत बडा दरवाजा था. हवेलीका  विस्तार भी बहुत बडा था. कमसे कम सामनेसे तो वैसेही लग रहा था. हवेलीकी बायी  ओर, हवेलीसे सटकर सरपंचकी  बहुत बडी गोशाला थी. अभी वह खालीही दिखाई दे रहा थी, शायद जानवर सुबह जल्दीही चरनेके लिए जंगलमें चले गए होंगे. गणेशको अंदर ले जाते हूए सदाने  दायी  तरफ जो बैठक थी उसमें गणेशको बिठाया. बैठक मतलब एक थोडी उंचाईपर बंधा एक कमरा था, और उसमे गद्दे इत्यादि बिछाए हूए थे. गणेश बैठकमें इधर उधर देखते हूए ही अंदर गया. उधर सदा घरके अंदर चला गया था, शायद सरपंचको बुलानेके लिए. बैठकमें दिवारोंपर अलग अलग प्रकारकी तस्वीरे लगाई हूई थी - जैसे नेहरु, लाल बहादूर शास्त्री, महात्मा गांधी, इत्यादि. गणेश उन तस्वीरोंको देखते हूए एक जगह गद्देपर बैठ गया. दिवारपर उसका ध्यान एक गंभीर प्रभावशाली लंबी लंबी मुंछोवाले, सरको महंगीसी पगडी बांधे हूए एक आदमी की तस्वीर की तरफ गया. शायद वे सरपंचके पिता होंगे या पिताके पिता होंगे. तभी अंदरसे सदा एक बाल्टीमें पानी ले आया.

" आवो  साबजी  हाथपैर धो लिजियो  ... इतनी  दुर से आवत रहे  ... थक गए होंगे... " बाल्टी लेकर सदा सामने बाहरी चबुतरेपर जाते हूए बोला.

" हां ... " कहते हूऐ गणेश उठ गया और उधर चला गया.

लोटेसे बाल्टीसे पानी लेकर गणेशने हाथ पैर मुंह धोकर, मुंह मे पाणी लेकर कुल्ला किया और अब वह पानी थूकनेके लिए इधर उधर देखते हूए जगह ढूंढने लगा.

" इहा  सामने थूक दियो जी   ... " सदाने गणेशकी उलझन देखते हूए कहा.

उसने अपने आपको असहज महसूस करते हूए अपने मुंहमे भरा हूवा पानी सामनेही लेकिन थोडी दूर थूकनेकी कोशीश की तो सदा मन ही मन मुस्कुराया.

" सरपंच पुजापाठ करत  रहे है ... थोडी देरमें आ जावेंगे...  आप आरामसे बैठकमें बैठीयो ... मै चायपानीका इंतजाम कराये देवत  हूं " गणेशके पास हाथपैर पोछने के लिए एक तौलीए जैसा कपडा देते हूए सदाने कहा. जब गणेश हाथपैर पोछने लगा, सदा जल्दीसे अंदर चला गया.

गणेशको अब, हाथपैर धोनेके बाद तरोंताजा महसूस होने लगा था. बससे आनेकी वजहसे चेहरा पसिना और धुलसे मलिन हुवा था. चेहरा पोछते हूए वह पैर लंबे कर लोडपर लेट कर बैठ गया. बसमें पैर एक सिमीत दायरेमें रखनेसे अकड गए थे. चेहरा पोछकर कपडा एक तरफ रखते हूए उसने अपनी थकान दुर करनेके उद्देशसे  पैरोंको और जोडोंको ढीला छोड दिया. तभी सदा पिनेके लिए पानी लेकर आया. यहा का पानी पिलानेका तरीका कुछ अलगही लग रहा था. सदाने पानीसे भरा हूवा पितल का लोटा गणेशके हाथमें थमाया. लोटेको उपरसे पितलकीही एक कटोरीसे ढका था. यह ऐसा तरीका उधर बारामतीकी तरफ उसने देखा था. जितना लगता है उतना पानी कटोरीमें खुद लो और पानी पिनेके बाद फिरसे लोटेको उसी कटोरीसे ढको. ना जाने क्यो यह तरीका उसे पहले देखा तबभी अच्छा नही लगा था. उसके मनमें एक आशंका हमेशा रहती थी की अगर कटोरीसे पानी पिकर कटोरी फिरसे लोटेपर रखी तो कटोरीका झूठा पानी लोटेमें फिरसे गिरेगा. लेकिन यह हूई उसकी सोच, उधर बारामतीकी तरफ तो बडे बडे लोग इसी तरह से पानी पिते थे. वैसे उसे प्यासभी बहुत लगी थी. सुबह पौ फटनेसे पहले घरसे बाहर निकलनेके बाद अबतक पानी की एक बुंद उसके पेटमे नही गई थी. वह मुंह के उपर लोटा तिरछा कर उपरसे गटागट पानी पिने लगा. लोटा खाली होनेके बादही उसने निचे रखा और एक लंबी सांस ली.

" बहुत प्यास लगी रहत  ... है जी ?... और लेकर आऊ? " सदाने पुछा.

गणेशने सर हिलाकर 'नही' कहा.

सरपंच पुजापाठ निपटाकर शांतीसे बैठकमें आ गए. सफेद धोती और उपर कपडेका सिला हुवा वैसाही सफेद बनियन. मस्तकपर लाल टिका लगाया हुवा. पुजाके पहिले सुबह सुबह नहा धोकर तैयार होनेसे उनके तेल लगाए हुए बाल और चेहरा एक अनोखे तेज से चमक रहे थे. सरपंच एक अध्यात्मीक व्यक्तीत्व लग रहे थे. वैसे गणेश और सरपंचजी की तहसीलमें पहलेही पहचान हूई थी. सरपंचजीके आतेही लेटा हूवा गणेश सिधा होकर बैठ गया.

" नमस्ते ... गणेशराव "

" नमस्ते ... "

सरपंचजी गणेशके बगलमेंही दुसरे एक लोडको खिंचकर टेंककर बैठ गए.
गणेशके पिठपर हलकेही थपथपाते हूए सरपंचजीने कहा, " फ़िर कैसन  हो... कुछ तकलिफ तो ना  हूई ना ईहां तक पहूंचनेमें "

गणेश उलझनमें पड गया की हां कहां जाए या ना कहा जाए ... क्योंकी यहां तक की उसकी यात्रा कुछ खांस सुखदायकतो नही हूई थी. .

उसकी उलझन देखकर सरपंचजीने कहां " शुरु शुरु में... तकलीफ तो होवेगीही... इतनी दुर वहभी देहात
मा  और बससे उबड खाबड रास्तेसे आना बोले तो तकलीफ़ तो होवेगीही... लेकिन धीरे धीरे आदत हो  जावे गी..."

सरपंचजीका बोलनेका लहजा एखाद दुसरा लब्ज छोडा जाए तो काफी साफ सुधरा लग रहा था... कम से कम उस देहाती सदा से तो साफ सुधरा था ही. तभी सदा चाय लेकर वहां आ गया.

" अरे सिरफ  चाय ... साथमें कुछ खानेको भी ले आवो भाई .. " सरपंचजी ने उसे टोका.

सदाने चायकी दो प्यालीयां दो हाथमें पकडकर लाई थी. सरपंजीकी सुचना सुनतेही असमंजससा वह दरवाजेमेंही खडा हो गया.

" नही... सरपंचजी... घरसे निकलने के पहलेही मैने नाश्ता किया है... मुझे सुबह उठते बराबर नाश्ता करनेकी आदत जो है. ... "

"अरे नही ऐसे कैसे... आप हमारे ईहा पहली बार आवत  रहे.... "

" नही सरपंचजी ... सचमुछ रहने दिजीए .... "

" अच्छा ठिक है... लेकिन सदा इनके दौपहरके और शामके खानेका इंतजाम करनेके लिए जरा अंदर बता दीज्यो .. "

सदाने अपने चेहरेपर मुस्कान लाते हूए अपना सर सहमतीमें हिलाया और चाय लेकर वह गणेश और सरपंचजीके सामने आकर खडा हो गया. चायकी प्यालीयां उनके हवाले कर वह फिरसे जल्दी जल्दी अंदर चला गया.

" बहुत ही सभ्य आदमी लगता है .. " गणेशने चाय लेते हूए सदा जिस तरफ गया उस तरफ़ देखते हूए कहा.

सरपंचभी जो चाय पी रहे थे उन्हे चाय पिते हूए अचानक चाय मानो उनके गलेमें अटककर खांसी आ गई.
उन्होने गणेशकी तरफ आश्चर्यसे देखते हूए पुछा, " आपको ये ईहां ले आया ?"

" जी हां "

" हे भगवान ... " हैरानीसे सरपंचजीने अपने मस्तकपर हाथ मारते हूए कहा.

" क्यो क्या हूवा ? "
" कुछ नाही "

आगे और सरपंचजीने कुछ नही कहां और वे फिरसे अपनी चाय पिनेमें व्यस्त हूए देखकर गणेशने कहा,

" आप नही जानते ... मेरी पहचान ना होते हूए भी उसने बस स्टॉपसे मेरा सामान यहांतक उठाकर लाया... और रास्तेमें बाते कर मेरा मनोरंजनभी किया... सचमुछ ऐसे सज्जन और सभ्य लोग देहातमेंही मिलना मुमकिन है... और वेभी बहुत कम .. अपनी उंगलीयोंसे गिनती हो इतनेही होंगे... ... "

" सज्जन? ... कौन सदा ? " सरपंचजीने आश्चर्यसे पुछा.

गणेश सरपंचजी सदाके बारेंमे आगे क्या कहते है इसकी राह देखने लगा. लेकिन सरपंचजी इतनाही कहकर आगे चुप रहे.

" क्यों क्या हुवा ? ... मुझे तो बहुत सज्जन लगा वो "

" कुछ ना ही ... धीरे धीरे आपको सब समझमें आ जावेगा ... " इतना कहकर सरपंचजीने बातोंका रुख बदल दिया.

" अब दिनभर क्या करने का इरादा है ... मेरा मतलब ई  है  के ... कुछ आराम कर काम शुरु करेंगे या अभी तुरंत... ... "

सरपंचजीने बातोंका रुख बदलनेकी बात  गणेशके खयालमें आगई. लेकिन उसे भी उसीके बारेंमें और कुरेदकर पुछना अच्छा नही लगा. लगभग तीनचार घंटेकी यात्राके बाद गणेश काफी थक गया था. उसमे तुरंत अभी काम शुरु करनेका उत्साह बाकी नही था. गणेश सोचमें पड गया.

क्या किया जाए? ...

तुरंत काम शुरु किया जाए?...

या थोडे आराम के बाद?...

सरपंचजीने मानो उसके मनमें चल रहा द्वंव्द भांप लिया.

" ठिक है ... ऐसा किजीयो ... थोडा विश्राम करियो ... तबतक खाना बन जावे गा ... और फिर खाना खानेके बाद ही कामको शुरवात करते है... "

" हां ठिक है ... वैसेही करेंगे... " गणेश अपने पैर थोडे फैलाते हूए बोला.

" और आप बिनदास्त आराम किजीयो ... एकदम पुरा  लेटकर... मै सदाको दरवाजा बंद करनेके लिए कहे देता हूं ऐसा बोलते हूए सरपंचजी बैठकके बाहर निकल गए.

क्रमश:

Courage is not the absence of fear, but rather the judgement that something else is more important than fear.

-Ambrose Redmoon

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