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Hindi Sahitya Literature Books - Madhurani - CH-4 वे दिन

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Hindi Sahitya Literature Books - Madhurani - CH-4 वे दिन
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The richest man is not he who has the most, but he who needs the least.
nknown Author

गणेशराव कुर्सीपर आरामसे पैर फैलाकर बैठे थे. बिच बिचमें वे दरवाजेसे अंदर बाहर कर रहे लोगोंकी तरफ देख रहे थे. उन्होने एकबार हॉलमे चारो तरफ जमी भिडकी तरफ देखा.

भगवान जाने अब इतने लोगोंमें मेरा नंबर कब आएगा ?...

तभी उन्हे अचानक हॉलमें कही हरकत महसूस हुई. कुछ लोग उठकर खडे हो रहे थे तो कुछ अपनी गर्दन उंची कर एक तरफ देख रहे थे तो कुछ लोग किसीको अभिवादन कर रहे थे.

कौन है ?... सरकार तो नही ?...

उन्हे लोगोंकी भिडसे गुजरता हुवा एक गोरा चिट्टा, उंचा और मजबुत शरीरयष्टीवाला आदमी दिखाई दिया.

अब ये महाशय कौन ?...

वह आदमी दरवाजेसे अंदर चला गया - सरकारसे मिलनेके लिए - बिना झिझक. उसे किसीने नही रोका. वह जानेके बाद भिड फिरसे शांत होकर अपनी जगहपर बैठ स्थिर हो गई.

" कौन था वह ?" गणेशरावने अपनी दाई तरफ बैठे एक आदमीसे पुछा,

उस आदमीने वडी ताज्जुबके साथ गणेशरावकी तरफ देखते हूए पुछा, " क्या इतनाभी नही जानते ?"

गणेशरावने अपनी झेंप छिपानेकी कोशीश करते हूए अपना अज्ञान प्रकट किया.

"अरे वे तो अपने मधूकरराव है ... सरकारका खास आदमी ... या दाया हाथही बोल सकते है "

" अच्छा ... अच्छा"

गणेशरावकी बाई तरफ एक सफेद कुर्ता पैजामा पहने एक आदमी अखबार पढते हूए बैठा था. उन्होने जाम्हाई देते हूए उस आदमी की तरफ देखकर कहा , " अब पता नही कितना टाईम लगता है तो ?"

उस आदमीने अखबार वैसाही सामने रखकर अखबारके उपरसे उसकी तरफ गौरसे देखा . " आप तो अभी अभी आए ना ? "

" जी हां " गणेशरावने जवाब दिया.

" मै पिछले दो दिनसे चक्कर काट रहा हूं ... लेकिन उनसे मिलनेका मौकाही नही मिल रहा है ... '"ऐसा मानो वह गर्वके साथ कहकर फिरसे अपना अखबार पढनेमें व्यस्त हो गया.

गणेशरावके चेहरेपर मायूसी छा गई थी. पलभरके लिए उसका वहांसे उठकर जानेका मन हुवा.

लेकिन नही ... मिलना तो जरुरी है ...

अपने लिए नही तो कमसे कम अपने लडके के लिए ...

कुछ देर बाद कुर्सीपर बैठे बैठे ही उनकी विचारोंकी श्रुंखलाने अपना रुख अतितकी तरफ किया. उन्हे याद आ रहा था की 20-25 साल पहले एकबार उन्हे ऐसेही, इससे मिल - उससे मिल ऐसा करना पडा था. और इतने सारे प्रयास करनेके बादभी उनकी पोस्टींग देहातमेंही हो गई थी.

अबभी तो वैसाही नही होगा ना ? ...

पिछली बारसे इसबार उन्हे अपना तबादला रोकना जादा जरुरी लग रहा था. क्योंकी तब वे जवान थे. सारी मुश्कीले सहन कर सकते थे. सोचते हूए उन्हे अपने जवानी के बिती हुई बाते याद आने लगी थी .....



.... बस घाटीमे दाएं-बाएं मुडती हुई आगे चल रही थी. गणेश बसके खिडकीके पास अपने सिटपर बैठा था. उसकी बगलमें एक देहाती बैठा था. बसकी चलनेकी वजहसे होनेवाली मचलनसे बचनेके लिए गणेश खिडकीसे बाहर घाटीमें दिख रही हिरियालीपर अपना ध्यान केंद्रीत करनेकी कोशीश कर रहा था. उसने बसमें बैठे बाकी यात्रीयोंपरसे अपनी नजरे घुमाई. कोई बैठे बैठेही झपकियां ले रहे थे तो कोई आपसमें बाते हाक रहे थे. गाडीके बिचवाले खाली जगहमेंभी कुछ यात्री खडे हूए थे. कोई बिचमें खडे लोहेके खंबेका सहारा लेकर खडे थे तो कोई बगलके सिटका सहारा लेकर खडे थे. उस भिडसे रास्ता निकालते हूए कंडक्टर अपनी जगहपर चला गया. अपने सिटपर बैठे आदमी की तरफ उसने सिर्फ घूरकर देखा. उस बैठे हूए आदमीने चुपचाप वहांसे उठकर कंडक्टरको बैठनेकी जगह दे दी. कंडक्टरने बैठतेही अपनी टिकटवाली बॅग खोली और उसमेंसे एक कागज और पेन निकाला. पेन कानके पिछे लगाते हूए उसने कचरेके टोकरीमें फेंकनेके लायक एक सिकुडा हुवा कागज खोला. फिर वह एक हाथसे टिकटकी बॅग उलटपुलटकर  टिकटके नंबर देखकर दुसरे हाथसे कानके पिछेसे पेन निकालकर कागजपर लिख रहा था. वह यह सब इतनी सफाईके साथ कर रहा था की मानो उसे उसका कोई खास ट्रेनिंग दिया गया हो. नही तो बस चलते वक्त -इतनी हिलनेके बाद किसी कागजपर लिखना मुश्कीलही नही तो लगभग नामुमकीन था.

गणेशने फिरसे अपनी नजर बाहर हरियालीपर जमाई. उसका सोचचक्र फिरसे शुरु हो गया था. कितनी जी तोड कोशिश करनेके बादभी उसपर यह नौबत आ गई थी. पांच सालतक वही तालूकेकी कोर्टमें उसने डेली वेजेसपर कुछ लिखापढीका काम किया था. फिर शादीभी की. अब पांच सालके बाद काफी मशक्कतके बाद गणेशका ग्रामसेवककी हैसीयतसे चयन हुवा था. ग्रॅजूएट होकरभी उसपर ग्रामसेवक के हैसियतसे काम करनेकी नौबत आई थी. वहभी सर्विस इतनी आसानीसे नही मिली थी. सतरा लोगोंको मिलकर, पहचान निकालकर, मन्नते करकर, उनके पैर पकडकर और उपरसे पैसेभी देकर... तब कहा उसे ग्रामसेवककी सर्विस मिली थी. सर्विस मिलनेके बाद सवाल था कहां जॉइन करना पडेगा. गणेशको तहसिलके पास लगभग 4-5 किलोमिटरके दायरेके अंदरही जॉइन करना पडे ऐसी इच्छा थी. फिरसे मिन्नते, हाथपैर जोडना और पैसे देनाभी आगया था. वहभी किया. लेकिन नही. जो नही होना था वही हो गया था. वह अपनी पोस्टींग आसपास कही नजदिक नही कर पाया था. नौकरी लगानेके वक्त लगाए वजनसे इसबार लगाया गया वजन शायद कम पड गया था. और आखिर अपनी इच्छाको मोडकर उसे तहसिलसे 50 किलोमिटर दुर बसे उजनी नामके देहातमें जाकर जॉईन करना  था. आज वहां जानेका उसका पहला दिन था.

क्रमश:...

The richest man is not he who has the most, but he who needs the least.
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